कैलास यात्रा भाग-7: शेषनाग, संगतराश कुदरत और कैलास परिक्रमा

14 जुलाई 2025 फैक्टर रिकॉर्डर

National Desk”: कैलास यात्रा – भाग 7: शेषनाग, संगतराश कुदरत और कैलास परिक्रमा                 डोल्मा से नीचे ल्हादू घाटी की ओर हमारा काफिला बढ़ा। अब रास्ता सीधा ढलान वाला था। करीब 18,000 फीट की ऊंचाई पर एक ताजा झील मिली, जिसकी हरी-भरी चमक पन्ने के रंग जैसी थी। यह था प्रसिद्ध गौरी कुंड, जिसकी परिधि 7.5 किलोमीटर और गहराई लगभग 80 फीट है। पूरी जगह के वातावरण में कुछ अलग ही अनुभूति थी, जो पहले कभी महसूस नहीं हुई। कैलास के बर्फीले हिस्से पर बनी सीढ़ियां साफ नजर आ रही थीं, और लगता था कि देवाधिदेव इसी रास्ते से उतरते होंगे। हम छड़ी लेकर भी चलने में मुश्किल महसूस कर रहे थे क्योंकि ऊंचाई पर हवा इतनी पतली थी कि छाती कसने लगती थी।

रास्ते में हमें छोटे-छोटे जानवर भी दिखे — नेवले जैसी चाल वाले जीव, जिन्हें तिब्बती में ‘चिपि’ कहा जाता है। इतनी ऊंचाई पर सैकड़ों चिपि देखना किसी चमत्कार से कम नहीं था। मन को बड़ा सांत्वना मिली कि यहां जीव-जंतु भी अपना जीवन जी रहे हैं।

ऑक्सीजन की कमी से सिरदर्द और मतिभ्रम होने लगे थे, लेकिन गाइड शेरपा ने बार-बार पानी पीने की सलाह दी जिससे कुछ राहत मिली। हमारे साथ याक भी चल रहे थे, जिनकी पीठ पर कुछ बुजुर्ग और बीमार यात्री सवार थे। याक का स्वभाव मनमौजी था—कभी तेज दौड़ना, कभी रास्ते में रुककर पानी पीना। तिब्बती जीवन में याक का बहुत महत्व है, और ये जानवर मेहनती, धीरज वाले और सौम्य स्वभाव के होते हैं। दुर्भाग्य से चीन के अत्याचारों के कारण इन्हें भी नुकसान हुआ है।

याक के साथ ही हमारी रसोई का सामान भी चलता था। भोजन रात के पड़ाव पर तैयार होता। ब्रह्मपुत्र नदी पार करने में भी याक की मदद ली गई। कठिन और थका देने वाले इस रास्ते पर मांस खाने के अलावा कोई विकल्प नहीं था, जिससे ठंड से लड़ना आसान हो सके।

कैलास की यात्रा इतनी गंभीर और अविस्मरणीय थी कि पहली बार लगा जैसे परलोक की ओर बढ़ रहे हों। 19,500 फीट की ऊंचाई पर स्थित डोल्मा दर्रा एवरेस्ट के बेस कैंप से भी 1,200 फीट ऊंचा था। सांसें छूटने लगी थीं, लेकिन कैलास की बर्फीली चोटियां जैसे शिवलिंग के रूप में मन को मंत्रमुग्ध कर रही थीं। वहां खड़े होकर गहरी श्रद्धा और नतमस्तकता का अनुभव हुआ।

डोल्मा से कैलास के पश्चिमी हिस्से में समुद्र मंथन के निशान जैसे शेषनाग की लहरियां दिखीं। गाइड ने बताया कि ये ग्रेनाइट पत्थरों पर बने निशान शिवलिंग की तरह प्रतीत होते हैं। वहां की रास्ता बहुत खतरनाक था, लेकिन एक पल के लिए भी कदम फिसलने का डर नहीं था, क्योंकि ऐसा लगता था जैसे सीधे महादेव के चरणों में गिरेंगे।

डोल्मा दर्रे पर तारा देवी की पूजा होती है। श्रद्धालु यहां धर्म-ध्वज लगाते हैं, और एक परंपरा है कि यहां कुछ न कुछ छोड़कर जाना चाहिए—छल, कपट, अहंकार, दुर्व्यसन, राग-द्वेष को त्यागना। हालांकि आजकल लोग यहां जूते-चप्पल, कपड़े और अन्य सामान भी छोड़ देते हैं, जो एक प्रकार का प्रदूषण बन गया है।

इस कठिन यात्रा के बीच, हम ॐ नमः शिवाय का जाप करते हुए भयंकर ठंड और सांस लेने में कठिनाई के बावजूद आगे बढ़ रहे थे। लगता था कि देवता खुद भी इस ऊंचाई और मुश्किल रास्तों से थक गए होंगे।

डोल्मा से नीचे ल्हादू घाटी की ओर चलते हुए हमें गौरी कुंड मिली—बर्फ से ढकी एक पवित्र झील, जहां पार्वती जी ने स्नान किया था और गणेश जी का जन्म हुआ था। झील के नीचे से पानी की कलकल आवाज़ आ रही थी, जो पूरे माहौल को और भी आध्यात्मिक बना रही थी। यहां की ऊर्जा कुछ अलग ही थी, एक पारलौकिक अनुभव जो मन को शांति और समृद्धि की ओर ले जाता था।

जैसे-जैसे परिक्रमा आगे बढ़ी, हमें तिब्बती श्रद्धालुओं का एक अनोखा नजारा भी देखने को मिला। वे दंडवत परिक्रमा कर रहे थे—लेटते और उठते हुए, जो उनके प्रति अपार श्रद्धा का परिचायक था। हाथों और घुटनों पर कंधे पर जूट के दस्ताने और टायर के टुकड़े बांधे, वे कठिन रास्ते पर अपना समर्पण दिखा रहे थे। कई लोग अपनी ओर से कुलियों को यह पुण्य कार्य सौंपते थे। पुण्य किसे मिलता है, यह कहना मुश्किल, पर श्रद्धा तो इन कुलियों में साफ दिखती थी।

परिक्रमा पूरी करके हम तारचेन लौट आए। सभी एक-दूसरे को ॐ नमः शिवाय कहकर आभार व्यक्त कर रहे थे। लौटते समय मन में एक गहरी, मौन और अव्यक्त अनुभूति थी—जो शब्दों में व्यक्त करना कठिन था। बस इतना कहा जा सकता है—जय जय!